रक्सौल।( vor desk )।हम मिट्टी को गूंथकर उसे आकर्षक रूप देते है कभी सुराही तो कभी दीप तो कभी बर्तन बनाते है।मूरत भी गढ़ते है लेकिन महंगाई के जमाने में खुद की सूरत नही गढ़ पाते।ऐसा कहना है सिरिसियां माल गांव निवासी घनश्याम पंडित व मनना गांव निवासी नंदलाल पंडित का।महंगाई इस कदर बढ़ी है कि कोई भी कुम्हार अपनी नई पीढ़ी को मिट्टी के बर्तन या दीये बनाने की प्रेरणा नही देता।सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने हुनर की बदौलत नए-नए नक्काशियों के साथ किस्म-किस्म के बर्तन गढने वाले कुम्हारों की जिंदगी में कभी सवेरा नही हुआ।दूसरों के घरों को खुद के बनाये दीयों से रौशन करते रहे किन्तु उनका जीवन कभी रौशने नही हो सका।
सस्ते व हाई-प्रोफाइल टेक्नोलॉजी ने इनके पुस्तैनी कारोबार पर ग्रहण लगा दिया।चाइनीज दीयों के आगे रंगहीन इनके दीये फीके पड़ जाते है।बाजार में अब मिट्टी के बर्तन भी महज पूजा-पाठ,शादी प्रयोजन में ही बिकते है।बकौल नन्दलाल पंडित-भले ही हम चांद की सैर कर लें,किन्तु जो आनंद या स्वाद मिट्टी के बने बर्तनों से मिलते है वह कृतिम या धातु के बर्तनों में मयस्सर नही होता।मिट्टी के सुराही के पानी के आगे आरओ के फिल्टर्ड पानी भी फीके है,क्योंकि गर्मी के दिनों में सुराही के पानी की शीतलता स्वास्थ के लिए जितना लाभकारी है उतने आरओ के नही।कारण,आरओ के पानी में प्राकृतिक मिनरल्स का क्षरण हो जाता है किंतु मिट्टी के सुराही के जल उसे बनाये रखता है।घनश्याम पंडित कहते है मिट्टी के हंडिया में बने कबाब व नदिया में जमे दही के स्वाद किसी दूसरे बर्तन में नही मिल सकता।उसी प्रकार मिट्टी के हांडी रखे अनाज या आचार जल्दी खराब नही होता।कुल्हड़ के चाय की मांग बढ़ी है लोग इसे काफी पसंद कर रहे है,लेकिन आज भी इन बर्तनों के कीमत वाजिब नही मिलते। जलावन के अभाव में बर्तनों को पकाना काफी कठिन कार्य है। लागत के अनुपात मेंं बर्तनों की कीमत नही मिलती।
दिन रात सृजन में लगे इन कुम्हारों की स्थिति में बदलाव नही दिखती।नई पीढ़ी इस पेशे से मुंह मोड़ रही है।जग में प्रकाश फैलाने के लिए दिन रात जुटे इन हुनरमंदों के लिए सरकार की योजना चलती है।लेकिन,इन्हें जानकारी भी नही हो पाती।पुछने पर बीडीओ सन्दीप सौरभ कहते हैं कि यदि ये हुनरमंद उद्योग विभाग को आवेदन दें तो इन्हें पांच से दस लाख तक का ऋण सहयोग मिल सकता है,जिससे उनका यह उद्योग तरक्की करेगा।( रिपोर्ट:एम राम )