Tuesday, November 26

हिंदी को शीर्ष पर प्रतिष्ठित करें ,इस पर गर्व करना सीखें और नई पीढ़ी को भी गर्व करना सिखाएं : डॉ. शलभ

रक्सौल।(vor desk) हिंदी केवल हमारी मातृभाषा नहीं हमारी पहचान भी है। इस पर गर्व करना सीखें और नई पीढ़ी को भी गर्व करना सिखाएं। भारत विभिन्न भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है, परन्तु जब देश की बात होती है तो देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है, जिसमें पूरे देश को एक सूत्र में बांधने की क्षमता है और ‘हिंदी दिवस’ हिंदी के इसी उत्कर्ष और गौरव का उत्सव है। आइए इस ‘हिंदी दिवस’ पर हिंदी के संरक्षण और संवर्धन के लिए कुछ नई पहल करें। इस जन जन की भाषा को राष्ट्रभाषा का गौरव दिलाने में अपना योगदान करें।
आज के दिन हिंदी की वर्तमान दशा और दिशा पर चिंतन किया जाना भी जरूरी है। कुछ नए कदम उठाये जाने की भी जरूरत है। हमें अच्छे साहित्य को पढ़ने पढ़ाने की फिर से शुरुआत करनी होगी। जो पत्र पत्रिकाएं बंद हैं या बंद होने के कगार पर हैं उनके नियमित प्रकाशन के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना होगा। बच्चों को वीडियो गेम से बाहर निकालकर चंपक, नंदन, पराग, बाल भारती, चंदा मामा, लोटपोट और अमर चित्र कथा की दुनिया में वापस लाना होगा। इससे उनके भाषा ज्ञान और लेखन क्षमता का विकास होगा। आज के बच्चे इन पत्रिकाओं को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भी ढूंढ सकते हैं। समय के साथ जरूरी है कि किताबें बुकस्टाल पर भी उपलब्ध हों और ऑनलाइन भी। डिजिटल दुनिया के साथ तालमेल मिलाकर ही इन पत्र पत्रिकाओं के लिए बड़ा पाठक वर्ग तैयार किया जा सकता है। यह दुःखद है कि धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, सारिका, माधुरी और दिनमान के बाद नंदन और कादंबिनी का प्रकाशन भी बंद हो गया। हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिस देश में अच्छे साहित्य का सम्मान नहीं होता वहां की संस्कृति भी अक्षुण्ण नहीं रह पाती। देश की सांस्कृतिक चेतना उसके भाषा साहित्य के साथ सीधे जुड़ी हुई होती है। इन स्तरीय पत्र पत्रिकाओं के बंद होने के लिए जिम्मेदार केवल प्रकाशन कंपनियां नहीं हैं। कोई भी प्रकाशन कंपनी घाटे में चलने वाले उपक्रमों को लंबे समय तक जारी नहीं रख सकती। इसके लिए जिम्मेदार हम सभी हैं। सेलफोन आने के बाद हम सबों ने पत्र पत्रिकाओं से दूरी बना ली। कागज और कलम से दूरी बना ली। लिखना पढ़ना भूलने लगे। हमें खुद याद करना होगा कि हमारे घरों में जो पत्र पत्रिकाएं नियमित आती थीं कब और कैसे अचानक बंद हो गईं। हमने अपनी नई पीढ़ी को भी हाथ में सेलफोन थमाकर उन्हें पत्र पत्रिकाओं से दूर कर दिया। यह भारतीय जन मानस के लिए तो चिंता का विषय है ही सरकार को भी इस सांस्कृतिक ह्रास पर चिंता करनी चाहिए। स्तरीय पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद न हो इसके लिए सरकार को कुछ नीतिगत फैसले लेना भी जरूरी है। आइए हम सब मिलजुल कर नए सिरे से पहल करें। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प लेकर इसे उस शीर्ष पर प्रतिष्ठित करें जिसकी वह अधिकारिणी है।

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